शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल
आग दुनिया में न आई थी कि सोज़ाँ हम थे
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मुँह जो फ़ुर्क़त में ज़र्द रहता है
जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप
जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
चिराग़-दाग़ मैं दिन से जलाए बैठा हूँ
वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया