चिराग़-दाग़ मैं दिन से जलाए बैठा हूँ
सुना है जो शब-ए-फ़ुर्क़त सियाह होती है
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देते फिरते थे हसीनों की गली में आवाज़
उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से
न डरे बर्क़ से दिल की है कड़ी मेरी आँख
मुंतज़िर तेरे हैं चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ खोले हुए
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल
जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
गया शबाब पर इतना रहा तअल्लुक़-ए-इश्क़
जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
मुझ से लाखों ख़ाक के पुतले बना सकता है तू