मुझ से लाखों ख़ाक के पुतले बना सकता है तू
मैं कहाँ से एक तेरा सा ख़ुदा पैदा करूँ
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क़ाफ़िले रात को आते थे उधर जान के आग
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
महफ़िल से उठाने के सज़ा-वार हमीं थे
बाग़ में फूलों को रौंद आई सवारी आप की
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
देते फिरते थे हसीनों की गली में आवाज़
जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप
जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
बढ़ते बढ़ते आतिश-ए-रुख़्सार लौ देने लगी