देते फिरते थे हसीनों की गली में आवाज़
कभी आईना-फ़रोश-ए-दिल-ए-हैरान हम थे
Habib Jalib
Gulzar
Allama Iqbal
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शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
उन्स है ख़ाना-ए-सय्याद से गुलशन कैसा
पड़ गई क्या निगह-ए-मस्त तिरे साक़ी की
बढ़ते बढ़ते आतिश-ए-रुख़्सार लौ देने लगी
जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
न डरे बर्क़ से दिल की है कड़ी मेरी आँख
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
चला घर से वो बहर-ए-हुस्न अल्लाह रे कशिश दिल की
कभी तो शहीदों की क़ब्रों पे आओ
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है