वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल
अजब तरह की मुसीबत पड़ी है ख़ंजर पर
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अदम से दहर में आना किसे गवारा था
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
अपनी फ़रहत के दिन ऐ यार चले आते हैं
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
क़ाफ़िले रात को आते थे उधर जान के आग
शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
याद-ए-अय्याम कि हम-रुतबा-ए-रिज़वाँ हम थे
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
महफ़िल से उठाने के सज़ा-वार हमीं थे