वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने
तुम हुए ख़ाना-नशीं हो गईं गलियाँ आबाद
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ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को
उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
चला घर से वो बहर-ए-हुस्न अल्लाह रे कशिश दिल की
न डरे बर्क़ से दिल की है कड़ी मेरी आँख
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
पड़ गई क्या निगह-ए-मस्त तिरे साक़ी की
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
बार-ए-ख़ातिर ही अगर है तो इनायत कीजे
बाग़ में फूलों को रौंद आई सवारी आप की