वो दाएरों से जो बाहर न आ सके 'तनवीर'
वो रस्म-ए-गर्दिश-ए-परकार तोड़ दी मैं ने
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वो रक़्स कहाँ और वो तब-ओ-ताब कहाँ है
दर्द की लय को बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है
पलक झपकने में कुछ ख़्वाब टूट जाते हैं
मिरी ग़ज़ल जो नए साज़ से इबारत है
ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है
अभी तो आँखों में ना-दीदा ख़्वाब बाक़ी हैं
लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
ज़ेहन ज़िंदा है मगर अपने सवालात के साथ
दिल के भूले हुए अफ़्साने बहुत याद आए
कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने