शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर
समझते काश वो अपना न राज़दार मुझे
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पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
अभी इस राह से कोई गया है
बे-मेहर कहते हो उसे जो बेवफ़ा नहीं
तू क्यूँ पास से उठ चला बैठे बैठे
दिल किस की तेग़-ए-नाज़ से लज़्ज़त-चशीदा है
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ