जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
क्या कहिए कि जी में मेरे क्या क्या नहीं होता
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हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर
रहने वालों को तिरे कूचे के ये क्या हो गया
ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
अभी इस राह से कोई गया है
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
दिल किस की तेग़-ए-नाज़ से लज़्ज़त-चशीदा है
कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे
नाम लोगे जो याँ से जाने का
उस कू मैं हुए हम वो लब-ए-बाम न आया
पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ