ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
सच तो ये है कि बुरा होता है अच्छा होना
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'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
उस कू मैं हुए हम वो लब-ए-बाम न आया
दिल किस की तेग़-ए-नाज़ से लज़्ज़त-चशीदा है
कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे