ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में ग़ुलाम करते हैं
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
जिस दिलरुबा सूँ दिल कूँ मिरे इत्तिहाद है
हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
दिल हुआ है मिरा ख़राब-ए-सुख़न
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ
याद करना हर घड़ी उस यार का
वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा
मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ
जामा-ज़ेबों को क्यूँ तजूँ कि मुझे