किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
रहें सब गोपियाँ वो नक़्ल ये अस्ल
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चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
मुफ़लिसी सब बहार खोती है
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है
जिस दिलरुबा सूँ दिल कूँ मिरे इत्तिहाद है
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
मुश्ताक़ हैं उश्शाक़ तिरी बाँकी अदा के
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है