अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
मिलने का इम्कान नहीं है
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'वक़ार' ऐ काश मेरी उम्र में शामिल न की जाए
ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती
जान नहीं पहचान नहीं है
सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
अगर रोना ही अब मेरा मुक़द्दर है मोहब्बत में
हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस
कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल
ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से
गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे
मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'