ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती
बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है
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मिरे वजूद को पामाल करना चाहता है
मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'
ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से
सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे
जान नहीं पहचान नहीं है
कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल
अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
'वक़ार' ऐ काश मेरी उम्र में शामिल न की जाए
हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस