सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
नहीं तो चुप भली है लब न खोलो
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गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे
मिरे वजूद को पामाल करना चाहता है
बहुत से ग़म छुपे होंगे हँसी में
इन आँसुओं से भला मेरा क्या भला होगा
अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
जान नहीं पहचान नहीं है
दिल में जो मर जाए वो है अरमाँ
ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से
अगर रोना ही अब मेरा मुक़द्दर है मोहब्बत में
हर ग़म सहना और ख़ुश रहना