हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
मुश्किल है आसान नहीं है
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ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती
मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'
हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस
जान नहीं पहचान नहीं है
अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
मिरे वजूद को पामाल करना चाहता है
बहुत से ग़म छुपे होंगे हँसी में
सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
'वक़ार' ऐ काश मेरी उम्र में शामिल न की जाए
इन आँसुओं से भला मेरा क्या भला होगा
ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से