पहुँची यहाँ भी शैख़ ओ बरहमन की कश्मकश
अब मय-कदा भी सैर के क़ाबिल नहीं रहा
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वही साक़ी वही साग़र वही शीशा वही बादा
ख़ुदाओं की ख़ुदाई हो चुकी बस
मरते दम तक तिरी तलवार का दम भरते रहे
अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या
देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
अरमान निकलने का मज़ा है कुछ और
मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा
इल्म क्या इल्म की हक़ीक़त क्या
देखे हैं बहुत चमन उजड़ते बस्ते
सलामत रहें दिल में घर करने वाले
बैठा हूँ पाँव तोड़ के तदबीर देखना