पर्दा-ए-हिज्र वही हस्ती-ए-मौहूम थी 'यास'
सच है पहले नहीं मालूम था ये राज़ मुझे
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इल्म क्या इल्म की हक़ीक़त क्या
दुनिया में रह के रास्त-बाज़ी कब तक
कोई तुझ को पुकारता जाता है
जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
वहशत थी हम थे साया-ए-दीवार-ए-यार था
दीवाना-ए-इश्क़ को नसीहत तौबा
हाथ उलझा है गरेबाँ में तो घबराओ न 'यास'
ज़माना ख़ुदा को ख़ुदा जानता है
कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
पहुँची यहाँ भी शैख़ ओ बरहमन की कश्मकश
यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
मौजों से लिपट के पार उतरने वाले