पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया
इशारा पाते ही अंगड़ाई ली रहा न गया
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न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस
कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
मुश्किल कोई मुश्किल नहीं जीने के सिवा
मुफ़्लिस को मज़ा ज़ीस्त का चखने न दिया
साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का
परवाने कहाँ मरते बिछड़ते पहुँचे
बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचाना
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना
दुनिया से 'यास' जाने को जी चाहता नहीं
देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
आ रही है ये सदा कान में वीरानों से