देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
फ़ितरत का गिला करूँ तो है बे-अदबी
प्यासे तो हैं जाँ-ब-लब मगर अब्र-ए-करम
दरिया पे बरसता है ज़हे बुलअजबी
Wasi Shah
Allama Iqbal
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चारा नहीं कोई जलते रहने के सिवा
दुनिया से अलग जा के कहीं सर फोड़ो
बादल को लगी खिलते बरसते कुछ देर
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस
वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
मंज़िल का पता है न ठिकाना मा'लूम
पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया
ठोकरें खिलवाईं क्या-क्या पा-ए-बे-ज़ंजीर ने
का'बा नहीं कि सारी ख़ुदाई को दख़्ल हो
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
झाँकने ताकने का वक़्त गया