वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
ये जाम-ए-मय था या कोई दरिया-ए-नूर था
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चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का
दुनिया से 'यास' जाने को जी चाहता नहीं
यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
इम्तियाज़-ए-सूरत-ओ-मअ'नी से बेगाना हुआ
साक़ी मैं देखता हूँ ज़मीं आसमाँ का फ़र्क़
वही साक़ी वही साग़र वही शीशा वही बादा
दुनिया से अलग जा के कहीं सर फोड़ो
पुकारता रहा किस किस को डूबने वाला
दैर ओ हरम भी ढह गए जब दिल नहीं रहा
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
परवाने कहाँ मरते बिछड़ते पहुँचे
यार है आइना है शाना है