वही साक़ी वही साग़र वही शीशा वही बादा
मगर लाज़िम नहीं हर एक पर यकसाँ असर होना
Habib Jalib
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मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
अपनी हद से गुज़र गए अब क्या है
दुनिया का चलन तर्क किया भी नहीं जाता
सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या
हुस्न-ए-ज़ाती भी छुपाए से कहीं छुपता है
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना
ख़ुदा ही जाने 'यगाना' मैं कौन हूँ क्या हूँ
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस
यार है आइना है शाना है
फ़र्दा को दूर ही से हमारा सलाम है
उदासी छा गई चेहरे पे शम-ए-महफ़िल के