ख़ुदा ही जाने 'यगाना' मैं कौन हूँ क्या हूँ
ख़ुद अपनी ज़ात पे शक दिल में आए हैं क्या क्या
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क़िस्सा किताब-ए-उम्र का क्या मुख़्तसर हुआ
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
रौशन तमाम काबा ओ बुत-ख़ाना हो गया
मुझे ऐ नाख़ुदा आख़िर किसी को मुँह दिखाना है
देखे हैं बहुत चमन उजड़ते बस्ते
ख़ुदाओं की ख़ुदाई हो चुकी बस
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला
पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया