जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
किस क़दर वाइज़-ए-मक्कार डराता है मुझे
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हैरान है क्यूँ राज़-ए-बक़ा मुझ से पूछ
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
बादल को लगी खिलते बरसते कुछ देर
कोई तुझ को पुकारता जाता है
ज़ंजीर से होने का नहीं दिल भारी
मौत माँगी थी ख़ुदाई तो नहीं माँगी थी
पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए
कारगाह-ए-दुनिया की नेस्ती भी हस्ती है
दिल को हद से सिवा धड़कने न दिया
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
क़िस्सा किताब-ए-उम्र का क्या मुख़्तसर हुआ
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस