पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए
इसी ज़मीन में दरिया समाए हैं क्या क्या
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सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या
कोई तुझ को पुकारता जाता है
दूर से देखने का 'यास' गुनहगार हूँ मैं
देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचाना
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
उम्मीद-ओ-बीम ने मारा मुझे दो-राहे पर
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला
दर्द हो तो दवा भी मुमकिन है
ख़ुदा ही जाने 'यगाना' मैं कौन हूँ क्या हूँ
सुब्ह-ए-अज़ल ओ शाम-ए-अबद कुछ भी नहीं
क्यूँ मतलब-ए-हस्ती-ओ-अदम खुल जाता