बादल को लगी खिलते बरसते कुछ देर
दिल को न लगी उजड़ते बस्ते कुछ देर
बच्चों की तरह मोम हुआ हूँ ऐसा
रोते कुछ देर है न हँसते कुछ देर
Jaun Eliya
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बाज़ आ साहिल पे ग़ोते खाने वाले बाज़ आ
कारगाह-ए-दुनिया की नेस्ती भी हस्ती है
दुनिया का चलन तर्क किया भी नहीं जाता
आप से आप अयाँ शाहिद-ए-मअ'नी होगा
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
दुनिया में रह के रास्त-बाज़ी कब तक
इल्म क्या इल्म की हक़ीक़त क्या
दामन-ए-क़ातिल जो उड़ उड़ कर हवा देने लगे
का'बा नहीं कि सारी ख़ुदाई को दख़्ल हो
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना
कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला