कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
फिर वही हम वही अमीनाबाद
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यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
क्यूँ मतलब-ए-हस्ती-ओ-अदम खुल जाता
उदासी छा गई चेहरे पे शम-ए-महफ़िल के
दामन-ए-क़ातिल जो उड़ उड़ कर हवा देने लगे
इम्तियाज़-ए-सूरत-ओ-मअ'नी से बेगाना हुआ
पर्दा-ए-हिज्र वही हस्ती-ए-मौहूम थी 'यास'
आ रही है ये सदा कान में वीरानों से
कोई तुझ को पुकारता जाता है
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
रोना है बदा जिन्हें वो जम जम रोएँ
मौत माँगी थी ख़ुदाई तो नहीं माँगी थी
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला