यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
यादश-ब-ख़ैर बैठे थे कल आशियाने में
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मुश्किल कोई मुश्किल नहीं जीने के सिवा
का'बा नहीं कि सारी ख़ुदाई को दख़्ल हो
'यास' इस चर्ख़-ए-ज़माना-साज़ का क्या ए'तिबार
साक़ी मैं देखता हूँ ज़मीं आसमाँ का फ़र्क़
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
हैरान है क्यूँ राज़-ए-बक़ा मुझ से पूछ
बादल को लगी खिलते बरसते कुछ देर
अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या
जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
झाँकने ताकने का वक़्त गया
दर्द अपना कुछ और है दवा है कुछ और
चले चलो जहाँ ले जाए वलवला दिल का