फ़र्दा को दूर ही से हमारा सलाम है
दिल अपना शाम ही से चराग़-ए-सहर हुआ
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साक़ी मैं देखता हूँ ज़मीं आसमाँ का फ़र्क़
अपनी हद से गुज़र गए अब क्या है
दुनिया के साथ दीन की बेगार अल-अमाँ
दिल लगाने की जगह आलम-ए-ईजाद नहीं
रंग बदला फिर हवा का मय-कशों के दिन फिरे
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस
कारगाह-ए-दुनिया की नेस्ती भी हस्ती है
बाज़ आ साहिल पे ग़ोते खाने वाले बाज़ आ
झाँकने ताकने का वक़्त गया
बे-दर्द हो क्या जानो मुसीबत के मज़े
दैर ओ हरम भी ढह गए जब दिल नहीं रहा
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे