रंग बदला फिर हवा का मय-कशों के दिन फिरे
फिर चली बाद-ए-सबा फिर मय-कदे का दर खुला
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कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
वल्लाह ये ज़िंदगी भी है क़ाबिल-ए-दीद
अरमान निकलने का मज़ा है कुछ और
ऐसा न हो हक़ का सामना हो जाए
मरते दम तक तिरी तलवार का दम भरते रहे
पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया
मौजों से लिपट के पार उतरने वाले
यार है आइना है शाना है
ज़ंजीर से होने का नहीं दिल भारी
साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का
मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा
बाज़ आ साहिल पे ग़ोते खाने वाले बाज़ आ