ऐसा न हो हक़ का सामना हो जाए
सारा ये तिलिस्मात हवा हो जाए
क्या करता है सच पे जान देने वाले
यारों का मज़ा न किरकिरा हो जाए
Allama Iqbal
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बे-दर्द हो क्या जानो मुसीबत के मज़े
यार है आइना है शाना है
मंज़िल का पता है न ठिकाना मा'लूम
देखे हैं बहुत चमन उजड़ते बस्ते
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना
यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
दर्द अपना कुछ और है दवा है कुछ और
चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का
आ रही है ये सदा कान में वीरानों से
सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या
दुनिया-तलबी जाएगी क्या जान के साथ
'यास' इस चर्ख़-ए-ज़माना-साज़ का क्या ए'तिबार