परवाने कहाँ मरते बिछड़ते पहुँचे
दीवाना-सिफ़त हवा से लड़ते पहुँचे
प्यास आग में कूद कर बुझाने वाले
धुन के पक्के थे गिरते-पड़ते पहुँचे
Javed Akhtar
Rahat Indori
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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Jaun Eliya
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क़यामत है शब-ए-वादा का इतना मुख़्तसर होना
दुनिया-तलबी जाएगी क्या जान के साथ
बे-धड़क पिछले पहर नाला-ओ-शेवन न करें
दूर से देखने का 'यास' गुनहगार हूँ मैं
मुझे ऐ नाख़ुदा आख़िर किसी को मुँह दिखाना है
यूसुफ़ को उस अंजुमन में क्या ढूँढता है
मुफ़्लिस को मज़ा ज़ीस्त का चखने न दिया
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बाँग-ए-जरस
रौशन तमाम काबा ओ बुत-ख़ाना हो गया
चारा नहीं कोई जलते रहने के सिवा