वक़्त की महरूमियों ने छीन ली मेरी ज़बान
वर्ना इक मुद्दत तलक मैं ला-जवाबों में रहा
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हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं
बौना था वो ज़रूर मगर इस के बावजूद
लग़्ज़िशें तन्हाइयों की सब बता दी जाएँगी
सोचा कि वा हो सब्ज़ दरीचा जो बंद था
जब मैं कच्चा फल था तो महफ़ूज़ था मैं
कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा
क़ातिल तो सीना तान के चलते रहे यहाँ
ज़ख़्मों की मुनाजात में पिन्हाँ वो असर था
सर पर दुख का ताज सुहाना लगता है
सारा बदन है ख़ून से क्यूँ तर उसे दिखा
पूछे जो ज़िंदगी की हक़ीक़त कोई 'जमाल'