ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
प्यास को अपनी सराबों से अलग रखता हूँ
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शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
अक्स ज़ख़्मों का जबीं पर नहीं आने देता
ऐ हम-सफ़र ये राह-बरी का गुमान छोड़
मैं तुम्हें फूल कहूँ तुम मुझे ख़ुश्बू देना
सब्ज़े से सब दश्त भरे हैं ताल भरे हैं पानी से
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
अमीर-ए-शहर इस इक बात से ख़फ़ा है बहुत
रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे
हरे पत्तो सुनहरी धूप की क़ुर्बत में ख़ुश रहना