शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
वो जब भी मिलता है झुक कर सलाम करता है
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रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे
ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
बे-हिसी पर हिस्सियत की दास्ताँ लिख दीजिए
दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
ऐ हम-सफ़र ये राह-बरी का गुमान छोड़
चिलचिलाती धूप ने ग़ुस्सा उतारा हर जगह
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
कभी कभी कोई चेहरा ये काम करता है
झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे
शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ