मेरे अंदर निहाँ है अक्स मिरा
आईने में है आप का परतव
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तिरे बग़ैर कटे दिन न शब गुज़रती है
दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
अजनबी ख़ुशबू की आहट से महक उट्ठा बदन
इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
सिमटे हुए जज़्बों को बिखरने नहीं देता
भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान कोई
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
कौन कहता है गुम हुआ परतव
हम भी कहने लगे हैं रात को रात
नूर ये किस का बसा है मुझ में