हम भी कहने लगे हैं रात को रात
हम भी गोया ख़राब होने लगे
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बे-मकाँ मेरे ख़्वाब होने लगे
रोज़ सुनता हूँ मैं हँसने की सदा
'ज़की' हमारा मुक़द्दर हैं धूप के ख़ेमे
इताब-ओ-क़हर का हर इक निशान बोलेगा
कौन कहता है गुम हुआ परतव
दरीदा-जैब गरेबाँ भी चाक चाहता है
गुमान होता है मुझ को तुम्हारे आने का
नूर ये किस का बसा है मुझ में
सिमटे हुए जज़्बों को बिखरने नहीं देता
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
तिरे बग़ैर कटे दिन न शब गुज़रती है