मैं अक्सर सोचता हूँ
ऐसा क्यूँ होता है
औलादों को
अपने बाप माएँ याद आती हैं
तो आँखों में
फ़क़त माँ बाप के
बूढ़े सरापे ही
उभरते डूबते और झिलमिलाते हैं
ममता से भर्राई
माँ बाप की आँखों में
औलादें कभी बूढ़ी नहीं होतीं
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बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
ग़ज़ब की धार थी इक साएबाँ साबित न रह पाया
मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना
अलिफ़ ज़बर अ
सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
पूछ न हम से कैसे तुझ तक नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ लाए हम
तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था