ये किस ने हात पेशानी पे रक्खा
हमारी नींद पूरी हो गई है
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शुक्र किया है इन पेड़ों ने सब्र की आदत डाली है
ये रास्ते में जो शब खड़ी है हटा रहा हूँ मुआफ़ करना
मुझ को ये वक़्त वक़्त को मैं खो के ख़ुश हुआ
सफ़र पे जैसे कोई घर से हो के जाता है
पेड़ों से बात-चीत ज़रा कर रहे हैं हम
दश्त-ओ-दरिया की इब्तिदा से हैं
निकला हूँ शहर-ए-ख़्वाब से ऐसे अजीब हाल में
हम जाना चाहते थे जिधर भी नहीं गए
कुछ ख़ाक से है काम कुछ इस ख़ाक-दाँ से है
यूँ जो पलकों को मिला कर नहीं देखा जाता
सहराओं के दोस्त थे हम ख़ुद-आराई से ख़त्म हुए
सो लेने दो अपना अपना काम करो चुप हो जाओ