मुझे भी इक सितमगर के करम से
सितम सहने की आदत हो गई है
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चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
तुम्हें ज़ेबा नहीं हरगिज़ सिले की आरज़ू रखना
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
ख़मोश बैठे हो क्यूँ साज़-ए-बे-सदा की तरह
उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
इब्तिदा बिगड़ी इंतिहा बिगड़ी
अपने चेहरे से जो ज़ुल्फ़ों को हटाया उस ने