उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
जफ़ा भी करते नहीं वो कभी जफ़ा की तरह
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कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला
तुम्हें तो अपनी जफ़ाओं की ख़ूब दाद मिली
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
गिला मुझ से था या मेरी वफ़ा से
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
मुझे भी इक सितमगर के करम से
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
वो मेरे क़ल्ब को छेदेगा कब गुमान में था
अपने चेहरे से जो ज़ुल्फ़ों को हटाया उस ने
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से