गिला मुझ से था या मेरी वफ़ा से
मिरी महफ़िल से क्यूँ बरहम गए वो
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ग़म-ओ-अलम भी हैं तुम से ख़ुशी भी तुम से है
मुझे उन से मोहब्बत हो गई है
लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
अपने चेहरे से जो ज़ुल्फ़ों को हटाया उस ने
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
ख़मोश बैठे हो क्यूँ साज़-ए-बे-सदा की तरह
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है