तुम्हें तो अपनी जफ़ाओं की ख़ूब दाद मिली
मिरी वफ़ाओं का मुझ को कोई सिला न मिला
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लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
जो चाहते हो बदलना मिज़ाज-ए-तूफ़ाँ को
उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
हर्फ़-ए-शिकवा न लब पे लाओ तुम
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
ख़मोश बैठे हो क्यूँ साज़-ए-बे-सदा की तरह
कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला
गिला मुझ से था या मेरी वफ़ा से
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी
इब्तिदा बिगड़ी इंतिहा बिगड़ी