तमाम उम्र की बे-ताबियों का हासिल था
वो एक लम्हा जो सदियों के पेश-ओ-पस में रहा
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मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
वहशत के इस नगर में वो क़ौस-ए-क़ुज़ह से लोग
अजीब तुर्फ़ा-तमाशा है मेरे अहद के लोग
क्या करूँ ख़िलअत ओ दस्तार की ख़्वाहिश कि मुझे
तलब करें तो ये आँखें भी इन को दे दूँ मैं
जब कोई तीर हवादिस की कमाँ से आया
गुज़र गया वो ज़माना वो ज़ख़्म भर भी गए
ख़ौफ़ ऐसा है कि दुनिया के सताए हुए लोग
मैं उस से दूर रहा उस की दस्तरस में रहा
हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं
वो हब्स था कि तरसती थी साँस लेने को
धुआँ सा फैल गया दिल में शाम ढलते ही