वो हब्स था कि तरसती थी साँस लेने को
सो रूह ताज़ा हुई जिस्म से निकलते ही
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क्या करूँ ख़िलअत ओ दस्तार की ख़्वाहिश कि मुझे
तमाम उम्र की बे-ताबियों का हासिल था
हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं
अजीब तुर्फ़ा-तमाशा है मेरे अहद के लोग
गुज़र गया वो ज़माना वो ज़ख़्म भर भी गए
मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
एक ना-तवाँ रिश्ता उस से अब भी बाक़ी है
मैं उस से दूर रहा उस की दस्तरस में रहा
ताबीर को तरसे हुए ख़्वाबों की ज़बाँ हैं
वहशत के इस नगर में वो क़ौस-ए-क़ुज़ह से लोग
जब कोई तीर हवादिस की कमाँ से आया