एक ना-तवाँ रिश्ता उस से अब भी बाक़ी है
जिस तरह दुआओं का और असर का रिश्ता है
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हम तिरे हुस्न-ए-जहाँ-ताब से डर जाते हैं
जब कोई तीर हवादिस की कमाँ से आया
वहशत के इस नगर में वो क़ौस-ए-क़ुज़ह से लोग
अहल-ए-जुनूँ थे फ़स्ल-ए-बहाराँ के सर गए
जिस को हम समझते थे उम्र भर का रिश्ता है
ख़ौफ़ ऐसा है कि दुनिया के सताए हुए लोग
मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
मैं उस से दूर रहा उस की दस्तरस में रहा
तलब करें तो ये आँखें भी इन को दे दूँ मैं
बहुत अज़ीज़ थी ये ज़िंदगी मगर हम लोग
अजीब तुर्फ़ा-तमाशा है मेरे अहद के लोग