अजीब तुर्फ़ा-तमाशा है मेरे अहद के लोग
सवाल करने से पहले जवाब माँगते हैं
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अहल-ए-जुनूँ थे फ़स्ल-ए-बहाराँ के सर गए
मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
तलब करें तो ये आँखें भी इन को दे दूँ मैं
हम तिरे हुस्न-ए-जहाँ-ताब से डर जाते हैं
हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं
ख़ौफ़ ऐसा है कि दुनिया के सताए हुए लोग
धुआँ सा फैल गया दिल में शाम ढलते ही
क्या करूँ ख़िलअत ओ दस्तार की ख़्वाहिश कि मुझे
ताबीर को तरसे हुए ख़्वाबों की ज़बाँ हैं
जिस को हम समझते थे उम्र भर का रिश्ता है
मैं उस से दूर रहा उस की दस्तरस में रहा
गुज़र गया वो ज़माना वो ज़ख़्म भर भी गए