दे इसे भी फ़रोग़-ए-हुस्न की भीक
दिल भी लग कर क़तार में आया
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पस-ए-ग़ुबार मदद माँगते हैं पानी से
परिंदे पूछते हैं तुम ने क्या क़ुसूर किया
रातें गुज़ारने को तिरी रहगुज़र के साथ
अब परिंदों की यहाँ नक़्ल-ए-मकानी कम है
टूट जाने में खिलौनों की तरह होता है
निहाल-ए-दर्द ये दिन तुझ पे क्यूँ उतरता नहीं
हर-चंद तिरी याद जुनूँ-ख़ेज़ बहुत है
मुझे रस्ता नहीं मिलता
शब की शब कोई न शर्मिंदा-ए-रुख़स्त ठहरे
हवा-ए-मौसम-ए-गुल से लहू लहू तुम थे
मेरा रंज-ए-मुस्तक़िल भी जैसे कम सा हो गया
पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था