मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
न जाने किस का बुत टूटा पड़ा है
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हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है
हुस्न इक दरिया है सहरा भी हैं उस की राह में
इस तिलिस्म-ए-रोज़-ओ-शब से तो कभी निकलो ज़रा
गर्द-ए-फ़िराक़ ग़ाज़ा कश-ए-आइना न हो
सज्दे के हर निशाँ पे है ख़ूँ सा जमा हुआ
बहार बन के ख़िज़ाँ को न यूँ दिलासा दे
खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
मिरे ख़ुलूस पे शक की तो कोई वज्ह नहीं
तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा
ग़ुबार-ए-दर्द से सारा बदन अटा निकला