जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
तुझ पे शीरीं है न 'ख़ुसरव' का न फ़रहाद का हक़
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पलकों से गिरे है अश्क टप टप
ग़म याँ तो बिका हुआ खड़ा है
तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़
आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
ख़ाक आब-ए-गिर्या से आतिश बुझे नाचार हम
क्यूँ न रुक रुक के आए दम मेरा
ग़ैर के दिल पे तू ऐ यार ये क्या बाँधे है
न पाया गाह क़ाबू आह में ने हाथ जब डाला
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
गरेबाँ चाक है हाथों में ज़ालिम तेरा दामाँ है
क्यूँ ख़फ़ा तू है क्या कहा मैं ने